Ehsas

Ehsas ke saath

Afsos bhi hota hai...

Gar ehsas zinda hai to aansu bhi aate hai,

Aur hansi bhi...

Maine to jab bhi koshish ki rone ki khud pe,

Hansi hi aayi...

Aansu barish ban ke

Man ki sukhi mitti ko khushboo se sarabor kar jate hai,

Aur banjar ho chuki dharti par andekhe phul khil aate hai.

About Me

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Kagaz ke phoolo me mehek purani kitaab ki.... Zang lage guitar ke taar, aur dhun ek jaani pehchani... purani. Log kehte hai ki safar hai, par sab makaam dhundhte hai; Subah chale the, sham tak koi rah hume bhi dhundh legi...

Thursday, May 30, 2013

बाज़ार

तुम मिले भी तो कहाँ?
खरीदारों के बाज़ार में ...
अब इस व्यापार में क्या बेचें, क्या खरीदें यहाँ?
सुना है बाज़ार में, मुफ़्त की मुस्कुराहट भी नहीं मिलती ...
तुम सौदागर हो यहाँ और हम सामान हैं ...
दोनो कुछ अदलने-बदलने आए हैं।

कई खरीदार हैं यहाँ ...
मोल भाव कर खेलने को,
तोलने सिक्कों की धत (metal) झनक-चमक
थोड़ा नफ़ा नुकसान गिनने आए हैं?
या फिर बुझे दिल सुलगाने को
एक अजीब रोज़गार ढूँढने आए हैं।

तुझे देखना दिल भर कर भी चोरी है मेरे लिए ...
पर अगर मैं कुछ पल लेना चाहुं तुम्हारे
ये सर्राफ बड़ी ऊँची बोली लगता है
है जेब में सिक्कों का वज़न, पेशानी पर पसीने की बूंदों से कम
वैसे तो अपनी सांसे दे देते तेरे मोल में
पर इन सांसो पर कोई और हक़ जताता है

गल्ले पर कभी कोई घर सजे नहीं
क्या करने आये थे यहाँ ये लाचार सामान?
ज़माने के खरोश के ग़ुलाम सज गए
सज गए नुमाइश में , कीमत भी लग ही जाएगी ...
और बेइन्तेहा है , बेवजह हो कर भी
इस बाज़ार से थोड़ी हमदर्दी की उम्मीद।

मेरी मुफ़्लसि, और तेरी फ़कीरी
दोनों बेकार बेबस बेसबब ...
देखते हैं एक दुसरे को शीशे के पर्दों के पीछे से ...
चलो थोड़ा बेशर्म होकर, अपनी मजबूरी पर थोड़ा हँस कर,
चलो आज एक मुफ़्त का सौदा करते हैं
इस बाज़ार से चुरा कर कुछ पल के लिए
किसी दरख़्त के साये में चल कर खिलते हैं ...

With special thanks to my uncle Sufi Benaam for valuable inputs and editing it without asking too many questions... 
Written by~ Saba
Edited by~ Sufi Benaam

शर्मिंदा



ग़म शर्मसार है आज
गुमनाम रहना चाहता है
तेरे इश्क़ और तेरी बेपरवाही
दोनो से अंजान रहना चाहता है

तुझे क्यों अश्कों में बहाये
पूछता है ये
तुझे बेशक्ल यादों का
सामान रखना चाहता है…

वैसे दुनिया कि नज़रों में मशरूफ ही है तू
बेवक्त मेरे खयालों में आ कर
क्यों दूसरों की निगाहों में मुझे
परेशां रखना चाहता है?

मेरे रोने और हँसने की
वजहें और भी हैं
फिर भी आँखों में ख़्वाब क्यों तुझे
मेहमान रखना चाहता है।

मैं वो इक फूल था जो तेरी राहों में सजा
और बिखर गया खुशबु की तरह
यहाँ कोई तुझे इबादतगाह में
बुतों के दरमियाँ रखना चाहता है।

बहुत शर्मिंदा हूँ दिल की इस बदतमीज़ी पर
तू तन्हाई मांगता है
और ये तेरे साथ अपनी चाह का'
कारवां रखना चाहता है।

~  सबा



Gum sharmsaar aaj
gumnaam rehna chahta hai
tere ishq aur teri beparwahi
dono se anjaan rehna chahta hai

tujhe kyo ashko me bahaye
puchhta hai ye
tujhe beshakl yado ka
samaan rakhna chahta hai

tu zamane ki nigaho me to mashruf hai
par bedhadak khayalo me aa kar
kyo dusro ki nigaho me mujhe
pareshan rakhna chahta hai?

mere rone aur hansne ki
wajahe aur bhi hai
phir bhi ankho me khwab kyo tujhe
mehmaan rakhna chahta hai

main wo ek phul tha jo teri rah me saja
aur bikhar gaya  khusbu ki tarah
yaha koi tujhe ibadatgah me
buto ke darmiyan rakhna chahta hai

Bahut sharminda hu dil ki is badtamizi par
tu tanhai mangta hai
aur ye tere sath apni chah ka
karwaan rakhna chata hai


Wednesday, May 22, 2013

इन्किलाब


एक और इन्किलाब की 
नब्ज़ पकड़ी आज ...
थोड़ा टटोल कर देखा 
कुछ हरक़त बची तो थी 
ज़रा  साँसे भी चलती थीं 
मद्धम, मगर जिंदा ...
छोटी सी उम्र थी 
कुछ दिन शायद...
और कई सांसे बेज़ा।
 
किसने पैदा किया ?
कौन पलेगा इसको?

ये इन्किलाब इतनी जल्दी 
यतीम क्यों हो जाते हैं?

वो हँसते हैं इस बात पर 
कि मैं रोती हूँ 
इसका दम निकलता देख 
समझाते हैं 
और बहुत इन्किलाब आयेंगे ऐसे ...
ये कोई नहीं बताता 
की अंजाम तक पहुंचना 
किसी का नसीब हुआ कभी?
या मकसद इसके रहनुमाओ का 
इसकी मौत ही था ...

कहने वाले यह भी कहते हैं 
की साज़िश है 
ज़हर था हल्का सा 
जो हर रोज़ थोड़ा थोड़ा 
इसकी रगों में घोला गया ...

वहाँ एक झंडा खड़ा है 
और थोड़ा थोड़ा दिखावा है 
अगरबत्तियों और फूलों का।

कोई बाग़ी कहता है  
कोई पागल 

~ सबा 

  


Inqilab

Ek aur inqilaab ki
Nabz pakdi aaj...
Thoda tatol ke dekha
Kuch harkat bachi to thi
zara sanse bhi chalti thi
Maddham, magar zinda...
Choti si umra thi
Kuch din shayad...
Aur kai sanse bezaa.

Kisne paida kiya tha?
Kaun palega isko?

Ye inqilaab itni jaldi 
Yateem kyo ho jate hain?

Wo hanste hain is baat par 
Ki main roti hu 
Iska dam nikalte dekh
Samjhate hain
Aur bahut inqilaab aayenge aise...
Ye koi nahi batata
Ki anjaam par pahunchna
Kisika naseeb hua kabhi?
Ya maqsad iske rehnumaon ka
Iski maut hi tha?

Kehne wale ye bhi kehte hain
Ki sazish hai
Zeher tha koi halka sa
Jo har roz thoda thoda
Iski rago me ghola gaya...

Waha ek jhanda khada hai
Aur thoda dikhawa hai 
agarbattiyo aur phulo ka

Koi baghi kehta hai
Koi pagal...

 ~Saba

Sunday, May 5, 2013

Dwand



इन्कलाब तो बहुत हैं
ज़माने के धधकते खून में
जाने क्यों उबाल आने से पहले
होश जैसा कुछ आ जाता है…

दुनिया दिल लगाने की जगह नहीं है
फिर भी मंज़र भटकाते हैं
और उस ख्वाब-ए -जूनून की ताबीर से पहले
रास्ते अपने आशियाँ को निकल जाते हैं।

ऐसे चलते चलते कभी
कोई ख़याल जलता हुआ तुमको भी आया होगा
बोलो क्या जला पाए अपना घर उससे
हलाकि उसने कई रातों तक जगाया होगा।

और फिर एक दिन
जब चिंगारियां तुम्हे भी जलाने लगे
चीखना मत
सोच लेना तुम्हारे ख़्वाबो का हिसाब आया है।



inqilaab to bahut hai
zamane ke dhadhakte khun me...
Jane kyo ubaal aane se pehle
hosh jaisa kuch aa jata hai...

Duniya dil lagane ki jagah nahi hai
phir bhi manzar bhatkate hai
aur us khwab-e-junoon ki tabeer se pehle...
Raste apne aashiyane ko nikal jate hain

aise chalte chalte kabhi
koi khayaal jalta hua tumkoo bhi aya hoga
bolo kya jala paye apna ghar ussse
halaki tumhe rato me jagaya hoga

aur phir ek din
jab chingariya tumhe bhi jalane lage
chikhna mat,
soch lena tumhare khwabo ka hissab aaya hai

Gulmuhar





जलते गुलमुहर की छांव मे
बिखरे ख्वाबों के सिंदूरी पत्तों मे
एक फूल ढूँढती हुं
जो शाख़ से टूट कर भी
बिखरा ना हो।।।

ये रंग इतना सुर्ख कैसे है?
शायद ढलते सूरज से चुराया होगा
या किसी दूर के राही को भटकाने के लिए
फ़रिश्तो ने ये जाल बिछाया होगा ...

बेवजह तो नहीं खिलते हैं ये गुलमुहर
किसी रंग साज़ ने खून--दिल से
पहले रंग बनाया होगा
और फिर किसी शायर की कलम ने उसपर
जलते हुए अल्फाजो का नूर सजाया होगा ...

या शायद किसी आशिक ने
बस नाम ले लिया होगा महबूब का
या किसी बच्चे के ख्वाबो के ताबीर मे
ये गुच्छा जन्नत से खुद आया होगा .

धूल की गोद से उठ कर
फिर उसी खाख में खो जाते हैं
ये रंग, जाने कैसे खिलते है
बेबाक, बेपरवाह हो कर भी शरमाते हैं

शायद इसके दफन है कई इश्क के अफ़साने
रोज़ गिर कर जिन्हें ये सुर्ख पत्तिया सजदा करती हैं

अगली बार जब मेरे घर आना उस रस्ते कसे चल कर
इक शाख गुलमुहर से ले आना कुछ फूल चुन कर…





Jalte gulmuhar ki chhaon me
bikhre khwabo ke sinduri patto me
ek phool dhundhti hu
jo shakh se tut kar bhi
bikhra na ho...

Ye rang itna surkh kaise hai?
Shayad dhalte suraj se churaya hoga
ya kisi dur ke rahi ko bhatkane ke liye
farishto ne ye jaal bichaya hoga...

Bewajah to nahi khilte hain ye gulmuhar
kisi rang saaz ne khun-e-dil se
pehle rang banaya hoga
aur phir kisi shayar ki kalam ne uspar
jalte hue alfazo ka noor sajaya hoga...

Ya shayad kisi ashiq ne
bas naam le liya hoga mehboob ka
ya kisi bachche ke khwabo ki tabeer me
ye guchcha jannat se khud aaya hoga.

Dhul ki god se uth kar
aur phir usi khaakh me kho jate hain
ye rang, jane kaise khilte hai
bebaak, beparwah ho kar bhi sharmate hain...

Shayad iske niche dafn hai kai ishq k afsane
roz gir ke jinhe ye surha pankhudiya sajda krti hain

agli baar jab mere ghar aana us raste se chal kar
ek shakh gulmuhar se le aana kuch phul chun kar.