कुछ गड्ढे है दीवारों में
कुछ आड़े टेढ़े दरवाज़े...
कुछ टूटी कुर्सी-मेज़े और
कुछ टूटी खिड़की पर जाले
कुछ टूटे डब्बे बिन पेंदी,
बारिश में भी सूखे खाली
कुछ सुर्ख सूराखो से आती
धुंधलाई सूरज की लाली
ये खंडहर हैं या यादे है
अब कोई यहाँ आता भी नहीं
उन संकरी कल की गलियों में
क्यों कोई आता जाता नहीं ...
इन पे दस्तक
दे पूछ रहा
क्यों चला
गया क्यों फिर आया?
क्या कोई
यहाँ पे रहता था
मेरी झूठी
याद लिए ?
क्या कोई
और यहाँ पे आता है
टूटे-झूठे
ख्वाब लिए ?
कुछ कमरे
थे यहाँ सजे हुए
या धूमिल
हैं यादें मेरी
बिछड़ी
-कमज़ोर कुछ आवाजें
बिखरी मरे
कानो पर...
टूटी सासों
की दरख्वाजें
इन सूनी
दीवारों पर..
गर कोई
यहाँ से गुज़रे तो
कहना कोई
नहीं आया इन टूटे खहंडहारों
में
(Second half of the poem written by my uncle (Mausaji) Anand Khatri... With thanks)