खाली पड़े खेतों से
जब गर्मी की दोपहर में
धूल अफ़वाह की तरह उड़ती है
सब मकानों, खोखले-हरे दरख़्तों को
एक दम घोंटते आग़ोश में भर
प्यार का दिखावा करती है।
कहीं, बारिश एक ख़्वाब सी
सुनाई आती है
पर बरसती नहीं।
टूटी चारपाई के खुरदुरे रेशों से
आग उठती है
मगर जलती नहीं।
और खाट पर पड़ा
बेकार, मगर बेरोज़गार ना हो पाने वाला किसान
उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच
दार्शनिक बना
नास्तिक ना होते हुए भी
सोचता है
की आदम और हव्वा
और अर्धनारीश्वर से पहले
ईश्वर को जन्म किसने दिया था
क्या कोई चुनाव हुआ था?
या राजतंत्र था...
जाने क्यों नेताओं की तरह
ईश्वर भी सिर्फ़ चढ़ावा मांगता है।
लेकिन जब बात बारिश पर आती है
ग्लोबल वार्मिंग का हवाला दे
हाथ खड़े कर लेता है...
इंतेज़ार में आँखों का पथराना
या साँसों का जकड़ जाना
क्या होता है
मीलों चलना मगर कहीं न पहुंच पाना
क्या होता है
परीयों कि कहानियां सुनना, सुनाना
और फिर मील दूर धूल फाँकते हुए
पसीना बहा कर
पानी लाना क्या होता है?
शायद कुछ भी नहीं,
शायद वैसा ही है जैसा दुकान से
पारदर्शी प्लास्टिक में बंद पानी
सिर्फ़ दस रुपये लीटर खरीदना...
या दस रुपये का अनाज
मंडी से ना ख़रीद पाना...
ज़मीन पर पड़ा आदमी
भीड़ में जकड़ा
कतार में खड़ा आदमी
और बार बार हाथ जोड़कर
आदमी से इश्तेहार बना आदमी...
सोचता तो है
पर कुछ कह नहीं पाता...
और उस खामोशी के शोर में
अक्सर बहरा हो जाता है।
~सबा
जब गर्मी की दोपहर में
धूल अफ़वाह की तरह उड़ती है
सब मकानों, खोखले-हरे दरख़्तों को
एक दम घोंटते आग़ोश में भर
प्यार का दिखावा करती है।
कहीं, बारिश एक ख़्वाब सी
सुनाई आती है
पर बरसती नहीं।
टूटी चारपाई के खुरदुरे रेशों से
आग उठती है
मगर जलती नहीं।
और खाट पर पड़ा
बेकार, मगर बेरोज़गार ना हो पाने वाला किसान
उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच
दार्शनिक बना
नास्तिक ना होते हुए भी
सोचता है
की आदम और हव्वा
और अर्धनारीश्वर से पहले
ईश्वर को जन्म किसने दिया था
क्या कोई चुनाव हुआ था?
या राजतंत्र था...
जाने क्यों नेताओं की तरह
ईश्वर भी सिर्फ़ चढ़ावा मांगता है।
लेकिन जब बात बारिश पर आती है
ग्लोबल वार्मिंग का हवाला दे
हाथ खड़े कर लेता है...
इंतेज़ार में आँखों का पथराना
या साँसों का जकड़ जाना
क्या होता है
मीलों चलना मगर कहीं न पहुंच पाना
क्या होता है
परीयों कि कहानियां सुनना, सुनाना
और फिर मील दूर धूल फाँकते हुए
पसीना बहा कर
पानी लाना क्या होता है?
शायद कुछ भी नहीं,
शायद वैसा ही है जैसा दुकान से
पारदर्शी प्लास्टिक में बंद पानी
सिर्फ़ दस रुपये लीटर खरीदना...
या दस रुपये का अनाज
मंडी से ना ख़रीद पाना...
ज़मीन पर पड़ा आदमी
भीड़ में जकड़ा
कतार में खड़ा आदमी
और बार बार हाथ जोड़कर
आदमी से इश्तेहार बना आदमी...
सोचता तो है
पर कुछ कह नहीं पाता...
और उस खामोशी के शोर में
अक्सर बहरा हो जाता है।
~सबा