Ehsas

Ehsas ke saath

Afsos bhi hota hai...

Gar ehsas zinda hai to aansu bhi aate hai,

Aur hansi bhi...

Maine to jab bhi koshish ki rone ki khud pe,

Hansi hi aayi...

Aansu barish ban ke

Man ki sukhi mitti ko khushboo se sarabor kar jate hai,

Aur banjar ho chuki dharti par andekhe phul khil aate hai.

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Kagaz ke phoolo me mehek purani kitaab ki.... Zang lage guitar ke taar, aur dhun ek jaani pehchani... purani. Log kehte hai ki safar hai, par sab makaam dhundhte hai; Subah chale the, sham tak koi rah hume bhi dhundh legi...

Friday, November 13, 2020

टूटी चप्पल


घिसटती हुई साथ आई थी बहुत दूर से

फटी हुई एड़ियों की दरारों में जमी धूल की सहेली

एक टूटी चप्पल

जोड़ी में हो कर भी अकेली।


पैरों को पूरे दम ख़म से पकड़

कर्तव्य पालन की मिसाल

मीलों चल चल के घिस चुकी

चिकने हो चुके तलवों की फ़िसलन को संभाल

एक टूटी चप्पल

अभी कुछ और दूर जाने को तैयार...


रास्ते की ठोकरों से

कोई शिकवा किया भी होगा

चुभी तो होंगी बेहिस निगाहें

तुम्हारी बेपरवाही को चुप चाप सहा होगा।

और दर्द भी होगा, 

उन मिट्टी में सने

दूर से चले

पैरों के छालों से रिसते ख़ून को

उसी मिट्टी में मिलते देखना, और कुछ न कर पाना

किश्तों में मरने वालों को

रोज़ थोड़ा थोड़ा दफ़नाना...


एक टूटी चप्पल

झुर्रियों से चटके चेहरे को जोड़ नहीं सकती

पसीने से धुले मुकद्दर को मोड़ नहीं सकती

ना सहला सकती है वक़्त के बोझ से झुकी पीठ...

वो तो थके पैरों को बाहों में भर चूम भी नहीं सकती

सिर्फ़ घिसट सकती है,

तब तक जब तक मर न जाए।


एक टूटी चप्पल,

ढूंढती है कोई मोची की दुकान

शायद एक बार और

जुड़ जाए।


~सबा


Tuesday, November 3, 2020

रूपांतरण

 लो, मैं भी तुम्हारे साँचे में ढल गया

हाथ पैर जोड़ कर

रीढ़ की हड्डी को

थोड़ा तोड़ कर

पत्थर था, पिघल गया

मैं, तुम्हारे सांचे में ढल गया।


नाखून के खुरदुरे कोनों से

अपनी ही चमड़ी उधेड़

खा खा कर

बेवक़्त, वक़्त की थपेड़

पलाश सा जल नहीं पाया,

सेमल के फाहों सा

बिखर गया

मैं, तुम्हारे साँचे में ढल गया।


लेकिन ढाल ना पाया

शरीर के टुकड़ों के परे

मन के बेबाक़ धुएँ को

जो कालिख़ सा

मुँह पर मल गया

मैं फिर भी, तुम्हारे साँचे में ढल गया।


अनभिज्ञता और जड़ता से

स्वसंरक्षण की आदत तक

सिलसिलेवार चुप्पी

मृत समाज की चिता

रद्दी कागज़ सी मुड़ी-तुड़ी, 

अधजली

देख कर भी चुप रह गया

मैं मूक रह कर तुम्हारे साँचे में ढल गया...


तो क्या कि अब शोर हो

जब आत्ममंथन, और आत्मचिंतन

आत्मा से अलग, मुखौटों वाले

नाटक में बदल गया...

मैं, जंगल था, 

लॉन की विनयशील घांस सा

सजने को कट गया...

मैं भी, तुम्हारे साँचे में ढल गया।


अब भी अफ़सोस ज़िंदा है

मेरी टूटी पीठ सहलाता

शर्मिंदा है।

लेकिन मैं, मैं इस दम्भ में रहा

की टूट कर भी मेरा कद ना घटा

और झूठे आइनों को साक्ष्य रख

मुस्कुराते हुए

अपने होने के गुमान में बहल गया

मैं, ना जाने किस साँचे में ढल गया...


~सबा