लो, मैं भी तुम्हारे साँचे में ढल गया
हाथ पैर जोड़ कर
रीढ़ की हड्डी को
थोड़ा तोड़ कर
पत्थर था, पिघल गया
मैं, तुम्हारे सांचे में ढल गया।
नाखून के खुरदुरे कोनों से
अपनी ही चमड़ी उधेड़
खा खा कर
बेवक़्त, वक़्त की थपेड़
पलाश सा जल नहीं पाया,
सेमल के फाहों सा
बिखर गया
मैं, तुम्हारे साँचे में ढल गया।
लेकिन ढाल ना पाया
शरीर के टुकड़ों के परे
मन के बेबाक़ धुएँ को
जो कालिख़ सा
मुँह पर मल गया
मैं फिर भी, तुम्हारे साँचे में ढल गया।
अनभिज्ञता और जड़ता से
स्वसंरक्षण की आदत तक
सिलसिलेवार चुप्पी
मृत समाज की चिता
रद्दी कागज़ सी मुड़ी-तुड़ी,
अधजली
देख कर भी चुप रह गया
मैं मूक रह कर तुम्हारे साँचे में ढल गया...
तो क्या कि अब शोर हो
जब आत्ममंथन, और आत्मचिंतन
आत्मा से अलग, मुखौटों वाले
नाटक में बदल गया...
मैं, जंगल था,
लॉन की विनयशील घांस सा
सजने को कट गया...
मैं भी, तुम्हारे साँचे में ढल गया।
अब भी अफ़सोस ज़िंदा है
मेरी टूटी पीठ सहलाता
शर्मिंदा है।
लेकिन मैं, मैं इस दम्भ में रहा
की टूट कर भी मेरा कद ना घटा
और झूठे आइनों को साक्ष्य रख
मुस्कुराते हुए
अपने होने के गुमान में बहल गया
मैं, ना जाने किस साँचे में ढल गया...
~सबा
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