कोई ग़ुम होने को राह ढूंढता है
मंज़िल कि तलब छोड़ चुका है
या गमज़दा है ?
या वो हमशक्ल सी घर की दीवारें और दायरे
कुछ ज्यादा सुकून देते हैं
तड़पना चाहता हुँ.
बस चलने को सफ़र कभी लम्बा नही होता
गर पैरों को पहचाने मोड़ो की तलाश न हो
तो बेछांव मीलों से कोई शिकवा नहीं होता
वो संकरी सी गली
किस सड़क पे खुलती है?
वहां मेरे किसी यार का घर था कभी
अब एक टूटा मकान है
और कुछ दरख़्त जो मुझे भूल चुके हैं.
क्या ये हमनशीं पेचीदा,
गुमनाम गालियाँ
मुझे अब पहचान भी पाएंगी?
मुझे अब पहचान भी पाएंगी?
मैं आवारा हूँ, या बस दिल्लगी है…
इक प्यास दिल में महफ़ूज़ रखना चाहता हूँ
मुझसे वादा न लो किसी मुकाम पे मिलने का
मैं खुद से भी अंजान भटकना चाहता हूँ...
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