घास था, जानवर बन गया...
पर वास्ता धूप-छाँव से छूटा कहाँ
मैं मौसम की करवटों पर
बदलता गया...
और जबकी बोतलों में बंद है
मेरे हिस्से की बारिश
मैं बादलों के बरसने पर
हर बार
पिघलता गया.
सबा
Subah ke khwab se chura ke kuch bunde os ki... Maine sham ka daman bhrne ko saamaan jutaya hai.
आसमान की नीली स्याही
मेरे रगों में उतर गयी है
धीरे धीरे सुरमई होती
आबादी के पास
दम घोटते असमान की तरह...
सफ़ेद, गुलाबी, रंगीन...
प्लास्टिक की थैलियों के ढेर
बड़े होते-होते
ज़मीन को पाट लेते हैं
और हरी घास
किसी प्रवासी, विस्थापित
जनसमूह सी
दिखती हैं
डरी-सहमी, छोटे छोटे टुकड़ों में
जहाँ-तहाँ, धब्बे सी
बदसूरत, बेजगह, बेवजह...
शहर पास आ रहा है
जिंदगियां प्लास्टिक में
करीने से बांध कर
दुकानों में सजा दी गयी हैं.
ये सूरज भी बियाँबान में
शेर बनता है...
शहर के धुंधलाते
धुंए के बादलों के बीच
बिजली बचाने को
बाथरूम में लगाये
ज़ीरो वाट के बल्ब की तरह
किफ़ायत से जलता है...
~सबा
एक नयी फ़सल आई है
एक नयी नस्ल आई है...
शोर के सुर में गाते जाओ
एक नयी ग़ज़ल आई है।
कतारें मील तक
कोई आह निकलती नहीं
ये मेरा शहर, खुशमिजाज़ है
धूप दीवारों पर टिकती नहीं।
रेस है, दौड़ते हैं,
सब गोल घेरों में
सट्टे लगते हैं हार जीत के खुल के,
सबा बहती है पहरों में।
ये ऊँची नस्ल के घोड़े, नज़र पे पर्दे रखते हैं...
ये लम्बी रेस के घोड़े, कहाँ चाबुक से डरते हैं,
यहाँ अंधी हैं सब दौडें, यहाँ पर हार बिकती है
अगर लुटना हो लुट जाओ, अगर लड़ना है, लड़ जाओ।
अगर अच्छा लगे जीना,
तो फिर बाज़ार तक जाओ
किसी रद्दी के ठेले पर
ख्वाबों को छोड़ कर आओ।
और ले आना रस्ते से
रंग थोड़े, वहम थोड़ा,
चलो ले आओ अपनी ख़ातिर अब तुम
और ज़हर थोड़ा।
चहकते हैं अगर पंछी
तो गुलशन भी कहीं होगा...
या फिर बिकने चले होंगे
कोई पिंजरा हिला होगा।
हुक़ुम हैं, हुक्मरां भी हैं
तेरी बारी कहाँ आयी...
डुला दे तख्तो-ताजों को
भीड़ वो फिर कहाँ आई...
या ये भी मान लेते हैं,
तुम्हारी ही हुकूमत है,
तुम्ही पर गाज क्यों गिरती है
क्या ख़ुद से अदावत है?
तिजारत एक मज़हब सा
बंदगी भी तो आदत है...
सौदा सांसों का चलता है
ज़िन्दगी की ज़रूरत है।
~सबा