आसमान की नीली स्याही
मेरे रगों में उतर गयी है
धीरे धीरे सुरमई होती
आबादी के पास
दम घोटते असमान की तरह...
सफ़ेद, गुलाबी, रंगीन...
प्लास्टिक की थैलियों के ढेर
बड़े होते-होते
ज़मीन को पाट लेते हैं
और हरी घास
किसी प्रवासी, विस्थापित
जनसमूह सी
दिखती हैं
डरी-सहमी, छोटे छोटे टुकड़ों में
जहाँ-तहाँ, धब्बे सी
बदसूरत, बेजगह, बेवजह...
शहर पास आ रहा है
जिंदगियां प्लास्टिक में
करीने से बांध कर
दुकानों में सजा दी गयी हैं.
ये सूरज भी बियाँबान में
शेर बनता है...
शहर के धुंधलाते
धुंए के बादलों के बीच
बिजली बचाने को
बाथरूम में लगाये
ज़ीरो वाट के बल्ब की तरह
किफ़ायत से जलता है...
~सबा
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