एक नयी फ़सल आई है
एक नयी नस्ल आई है...
शोर के सुर में गाते जाओ
एक नयी ग़ज़ल आई है।
कतारें मील तक
कोई आह निकलती नहीं
ये मेरा शहर, खुशमिजाज़ है
धूप दीवारों पर टिकती नहीं।
रेस है, दौड़ते हैं,
सब गोल घेरों में
सट्टे लगते हैं हार जीत के खुल के,
सबा बहती है पहरों में।
ये ऊँची नस्ल के घोड़े, नज़र पे पर्दे रखते हैं...
ये लम्बी रेस के घोड़े, कहाँ चाबुक से डरते हैं,
यहाँ अंधी हैं सब दौडें, यहाँ पर हार बिकती है
अगर लुटना हो लुट जाओ, अगर लड़ना है, लड़ जाओ।
अगर अच्छा लगे जीना,
तो फिर बाज़ार तक जाओ
किसी रद्दी के ठेले पर
ख्वाबों को छोड़ कर आओ।
और ले आना रस्ते से
रंग थोड़े, वहम थोड़ा,
चलो ले आओ अपनी ख़ातिर अब तुम
और ज़हर थोड़ा।
चहकते हैं अगर पंछी
तो गुलशन भी कहीं होगा...
या फिर बिकने चले होंगे
कोई पिंजरा हिला होगा।
हुक़ुम हैं, हुक्मरां भी हैं
तेरी बारी कहाँ आयी...
डुला दे तख्तो-ताजों को
भीड़ वो फिर कहाँ आई...
या ये भी मान लेते हैं,
तुम्हारी ही हुकूमत है,
तुम्ही पर गाज क्यों गिरती है
क्या ख़ुद से अदावत है?
तिजारत एक मज़हब सा
बंदगी भी तो आदत है...
सौदा सांसों का चलता है
ज़िन्दगी की ज़रूरत है।
~सबा
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