शाम तक कैसे जियूँ ?
दिल लगाने के लिए
क्या शौक़ अब पैदा करुं ?
जगमगाते टुकड़े हैं
ज़ंज़ीर के, ज़र हैं, न ज़ार
कैसे नज़रें फेर लूँ
क्या इनका फिर सौदा करुं ?
एक आज़ादी कफ़न ओढ़े
रास्तों पर बिक रही
मोल कर घर लाऊं
या फिर दूर से तौबा करुं ?
खेलती हैं तितलियां तो
तितलियों को बोल दो
चार दिन का चमन है
क्या बहार का वादा करुं...
जल रहा है घर कोई
ख़ुश हाथ सेंकते हैं सब
आग़ अक़सर फैलती है
इनको क्या ये बोल दूं ?
इंकिलाब सा तो कुछ
बच्चों के हँसने में भी है
नासमझ को कैसे अब
ख़ामोशी का फ़रमान दूँ ?
या तो मुझको खुशमिजाज़ी
रास है आती नहीं
या ग़मों से इश्क़ है
क्या सच से कुछ पर्दा करुं ?
काश थक कर रुक ही जाते
चाँद-सूरज भी कभी
पर कहाँ रुकते हैं ये
मैं कैसे चलना छोड़ दूँ...
~ सबा