Ehsas

Ehsas ke saath

Afsos bhi hota hai...

Gar ehsas zinda hai to aansu bhi aate hai,

Aur hansi bhi...

Maine to jab bhi koshish ki rone ki khud pe,

Hansi hi aayi...

Aansu barish ban ke

Man ki sukhi mitti ko khushboo se sarabor kar jate hai,

Aur banjar ho chuki dharti par andekhe phul khil aate hai.

About Me

My photo
Kagaz ke phoolo me mehek purani kitaab ki.... Zang lage guitar ke taar, aur dhun ek jaani pehchani... purani. Log kehte hai ki safar hai, par sab makaam dhundhte hai; Subah chale the, sham tak koi rah hume bhi dhundh legi...

Friday, January 27, 2017

बेज़ार

है बहुत बेज़ार सुबहें
शाम तक कैसे जियूँ ?
दिल लगाने के लिए
क्या शौक़ अब पैदा करुं ?

जगमगाते टुकड़े हैं
ज़ंज़ीर के, ज़र हैं, न ज़ार
कैसे नज़रें फेर लूँ
क्या इनका फिर सौदा करुं ?

एक आज़ादी कफ़न ओढ़े
रास्तों पर बिक रही
मोल कर घर लाऊं
या फिर दूर से तौबा करुं ?

खेलती हैं तितलियां तो
तितलियों को बोल दो
चार दिन का चमन है
क्या बहार का वादा करुं...

जल रहा है घर कोई
ख़ुश हाथ सेंकते हैं सब
आग़ अक़सर फैलती है
इनको क्या ये बोल दूं ?

इंकिलाब सा तो कुछ
बच्चों के हँसने में भी है
नासमझ को कैसे अब
ख़ामोशी का फ़रमान दूँ ?

या तो मुझको खुशमिजाज़ी
रास है आती नहीं
या ग़मों से इश्क़ है
क्या सच से कुछ पर्दा करुं ?

काश थक कर रुक ही जाते
चाँद-सूरज भी कभी
पर कहाँ रुकते हैं ये
मैं कैसे चलना छोड़ दूँ...

~ सबा



Monday, January 23, 2017

शहर के पास

आसमान की नीली स्याही
मेरे रगों में उतर गयी है
धीरे धीरे सुरमई होती
आबादी के पास
दम घोटते असमान की तरह...

सफ़ेद, गुलाबी, रंगीन...
प्लास्टिक की थैलियों के ढेर
बड़े होते-होते
ज़मीन को पाट लेते हैं
और हरी घास
किसी प्रवासी, विस्थापित
जनसमूह सी
दिखती हैं
डरी-सहमी, छोटे छोटे टुकड़ों में
जहाँ-तहाँ, धब्बे सी
बदसूरत, बेजगह, बेवजह...

शहर पास आ रहा है
जिंदगियां प्लास्टिक में
करीने से बांध कर
दुकानों में सजा दी गयी हैं.

ये सूरज भी बियाँबान में
शेर बनता है...
शहर के धुंधलाते
धुंए के बादलों के बीच
बिजली बचाने को
बाथरूम में लगाये
ज़ीरो वाट के बल्ब की तरह
किफ़ायत से जलता है...

~सबा

Monday, January 16, 2017

नयी ग़ज़ल


एक नयी फ़सल आई है
एक नयी नस्ल आई है...
शोर के सुर में गाते जाओ
एक नयी ग़ज़ल आई है।

कतारें मील तक
कोई आह निकलती नहीं
ये मेरा शहर, खुशमिजाज़ है
धूप दीवारों पर टिकती नहीं।

रेस है, दौड़ते हैं,
सब गोल घेरों में
सट्टे लगते हैं हार जीत के खुल के,
सबा बहती है पहरों में।

ये ऊँची नस्ल के घोड़े, नज़र पे पर्दे रखते हैं...
ये लम्बी रेस के घोड़े, कहाँ चाबुक से डरते हैं,
यहाँ अंधी हैं सब दौडें, यहाँ पर हार बिकती है
अगर लुटना हो लुट जाओ, अगर लड़ना है, लड़ जाओ।

अगर अच्छा लगे जीना,
तो फिर बाज़ार तक जाओ
किसी रद्दी के ठेले पर
ख्वाबों को छोड़ कर आओ।
और ले आना रस्ते से
रंग थोड़े, वहम थोड़ा,
चलो ले आओ अपनी ख़ातिर अब तुम
और ज़हर थोड़ा।

चहकते हैं अगर पंछी
तो गुलशन भी कहीं होगा...
या फिर बिकने चले होंगे
कोई पिंजरा हिला होगा।

हुक़ुम हैं, हुक्मरां भी हैं
तेरी बारी कहाँ आयी...
डुला दे तख्तो-ताजों को
भीड़ वो फिर कहाँ आई...

या ये भी मान लेते हैं,
तुम्हारी ही हुकूमत है,
तुम्ही पर गाज क्यों गिरती है
क्या ख़ुद से अदावत है?

तिजारत एक मज़हब सा
बंदगी भी तो आदत है...
सौदा सांसों का चलता है
ज़िन्दगी की ज़रूरत है।

~सबा