मैं भीड़ हूँ
भीड़ में ही कहीं खो जाऊंगा
जब तक चल सका
चलूंगा
जहाँ पैर रुक जायेंगे
सो जाऊंगा।
मैं भीड़ हूँ
मेरी शक्ल
या आवाज़ में
ऐसा कुछ भी नहीं
जो तुम याद रखोगे
शायद एक हादसा
या सिर्फ एक वाक्या है
मेरा होना या ना होना
तुम कभी मुझसे आंखें नहीं मिलाते
इसलिए नहीं कि मेरी आँखों में
तुम्हे खालीपन दिखता है
मेरी आँखों मे तुम्हे
तुम्हारी अपनी तस्वीर दिखती है
मेरी तरह सहमी।
वो डर
जो तुमने मेरे हिस्से में लिखा था
अब तुम्हे डरायेगा
आंखें बंद कर के भी
मेरा चेहरा नज़र आएगा।
और हालाकि मेरा वजूद
अखबार में छपे आंकड़े
और सड़क पर लगे इश्तिहार सा
दब जाता है
शहर की चकाचोंध में
एक दिन मेरा अंधेरा
जिसे तुमने अंधेरा मानने से मना कर दिया था
तुम्हारी आंखे चौंधियायेगा।
शहर की बत्तियां गुल होने के बाद
मेरा अंधेरा सबको लील जाएगा।
मैं भीड़ हूँ
गुमनाम हूँ
मगर ज़िंदा हूँ
जब गाड़ियों, फेरियों, बाज़ार की आवाज़ें
मर जायेंगी
मेरी चीखों को कौन दबाएगा?
सबा
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