पूर्ण चंद्र की
अर्ध रात्री में
बोध की तलाश
रोटी बन कर
पड़ी पड़ी
सड़ गयी।
बचा रखी थी
कल की भूख के लिए...
भूख भी
मेरे साथ मर गयी।
चांद देखा था सब ने
उतारा भी था
हथेलियों पर
पोटली में बांध कर
बच्चों के लिए
घर ले जाने...
शायद उसी चाँद की
नज़र लग गयी।
सपने में एक छत थी
शायद एक बिस्तर भी
और चिंता में जागती
आँखे भी...
उस सपने की भी
उम्र गुज़र गयी।
पता नहीं कौन लोग हैं
जो यायावर बन के
बुद्ध बन जाते हैं
हम घर के लिए चले थे
ख़बर बन के रह गए
ना किसी ने चीखें सुनी
ना कोई हाथ बढ़ा
हो सकता है
कल वो मानने से मना कर दें...
बुद्ध पूर्णिमा की रात
रेल की पटरी पर
मेरे सपनों की
चिता सज गयी।
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