Ehsas

Ehsas ke saath

Afsos bhi hota hai...

Gar ehsas zinda hai to aansu bhi aate hai,

Aur hansi bhi...

Maine to jab bhi koshish ki rone ki khud pe,

Hansi hi aayi...

Aansu barish ban ke

Man ki sukhi mitti ko khushboo se sarabor kar jate hai,

Aur banjar ho chuki dharti par andekhe phul khil aate hai.

About Me

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Kagaz ke phoolo me mehek purani kitaab ki.... Zang lage guitar ke taar, aur dhun ek jaani pehchani... purani. Log kehte hai ki safar hai, par sab makaam dhundhte hai; Subah chale the, sham tak koi rah hume bhi dhundh legi...

Sunday, November 30, 2014

इशारा


 वो जो ज़ुल्फ़ें संवार दे
पलकों के एक इशारे से...
हल्के से, चूम ले
कान की बालियां
जब मुस्कुराए...
पैरों में पायल का  शोर  नहीं
उसकी आवाज़ पहनी है.
मैं जब चलती हूँ,
वो धीरे से कहता है
किसी ख़्वाब पर पाँव मत रखना;
चुभ जायेगा ...

~ सबा


Wo jo zulfeiN sanwar de
palko ke ishare se...
Halke se, choom le
kaan ki baaliyaN
jab muskuraye..
Pairo me payal ka
shor nahi
uski awaz pehni hai,
main jab chalti huN
wo dheere se kehta hai
kisi khwab pe paanv mat rakhna
chubh jayega...

~Saba

Tuesday, October 14, 2014

आदत

मैं तेरी यादों को सहेजता रहा यूँही,
जाने कब गमनशीनी आदत बन गयी होगी...

तेरी तस्वीर को रखा था संभाले दिल में,
चाँदनी जब जली, तस्वीर जल गयी होगी.

बड़ी बेख़ौफ़ थी शमा, आंधियों से लड़ी,
सहर की ओस में, रो-रो कर बुझ गयी होगी.

गुलों से इश्क़-ए-खिज़ां का सबब भी पूछा था,
टूटते पत्तों में आवाज़ दब  गयी होगी.

मैं अब भी जीता हूँ, एहसास, सांस, आस भी ग़ुम,
टूटे ख्वाबों की उम्र मुझको लग गयी होगी...

~ सबा



Main teri yadoN ko sahejta raha yunhi,

jane kab gumnashini adat ban gayi hogi.



Teri tasveer ko rakha tha sambhale dil me

Chandni jab jali, tasveer jal gayi hogi...



Badi bekhauf thi shama, andhiyoN se ladi,

seher ki os me, ro-ro kar bujh gayi hogi.



GuloN se ishq-e-khiza ka bhi sabab puchha tha...

Toot-te pattoN me awaz dab gayi hogi.



Main ab bhi jeeta hun ehsas, saans, aas bhi gum

tute khwaboN ki umar mujhko lag gayi hogi.


~Saba

Saturday, September 6, 2014

बहलावा

कुछ आधे अधूरे ख्वाबों को
फिर से बहलाया फुसलाया
कल वक़्त उन्हे देंगे सारा
कह कर बामुश्किल समझाया...
ये ख्वाब अधूरे, बच्चों से,
खुद ही हँस लेंगे, रो लेंगे;
खुद बहलेंगे एक दूजे से,
कभी झगड़ेंगे, कभी खेलेंगे.
हम एक कच्ची छत के नीचे,
इन ख्वाबों को रख जाते हैं …
वादे कल-कल के कर कर के
ख्वाबों को रोज़ सुलाते हैं.


Thursday, August 21, 2014

रंग



शाम के हाथों में फिर रंग हिना का उतरा

दिन ढलते ढलते और भी गहराएगी


रात कालिख़ समझ ले कोई, हंस ना दे

अपने अश्कों घुल घुल कर धुल जाएगी


ज़ाफ़रानी सहर उकताई बेनूरी से अपनी

वही एक रंग वाली शाख फिर बुलाएगी …


रोज़ का खेल है ये रंग दाग़ बनते हैं

ये आज फिर से सजेगी और फिर मिट जाएगी।


दिल जो सेहरा होता रंगो के परे रह लेते

ये सुर्खियाँ भी कभी मुझसे कतराएंगी  …


~ सबा  








Sham k hatho me phir rang hena ka utra
din dhalte dhalte kuchh aur bhi gehrayegi

raat kalikh na samajh le koi, hans na de
apne ashko me ghul ghul ke dhul jayegi

zafrani seher me uktayi apni benoori se
wahi ek rang wali shakh phir bulayegi.

Roz ka khel hai ye rang daag bante hain
ye aaj phir sajegi aur phir mit jayegi

dil jo sehra hota rango se pare reh lete
ye surkhiya bhi kabhi mujse katrayengi...


~Saba

Monday, July 14, 2014

shauk

मुझे तनहाई का कुछ शौक हो चला है पर,
अपनी परछाई से अक्सर मुँह चुराता हूँ...
कभी मजमें में तलाशे हैं हमशक्ल चेहरे;
कभी आईने को भी मुख़तलिफ़ सा पाता  हुँ.
कहाँ हमदर्द इस बेहिस शहर में मिलते हैं
अक्सर चेहरे को रंगो-साज से सजाता हूँ.
गैर बस्ती में ढूंढता हूँ तबीब कोई तो हो
रिसते ज़ख्मो को कुरेद कर मुस्कुराता हूँ


mujhe tanhai ka kuchh shauk ho chala hai par,
apni parchhayi se aksar muh churata hu...
kabhi majme me talashe hain humshakal chehre;
kabhi aaine ko bhi mukhtalif sa pata huN.
kaha humdard is behis sheher me milte haiN
aksar chehre ko rango-saaz se sajata huN...
gair basti me dhundhta hun tabeeb koi to ho...
riste zakhmo ko kured kar muskurata huN...


तबीब- doctor

Monday, April 14, 2014

मैं भटकना चाहता हूँ...


कोई ग़ुम होने को राह ढूंढता है 
मंज़िल कि तलब छोड़ चुका है 
या गमज़दा है ?


या वो हमशक्ल सी घर की दीवारें और दायरे  
कुछ ज्यादा सुकून देते हैं  
तड़पना चाहता हुँ.

बस चलने को सफ़र कभी लम्बा नही होता 
गर पैरों को पहचाने मोड़ो की तलाश न हो 
तो बेछांव मीलों से कोई शिकवा नहीं होता


वो संकरी सी गली 
किस सड़क पे खुलती है?
वहां मेरे किसी यार का घर था कभी
अब एक टूटा मकान है 
और कुछ दरख़्त जो मुझे भूल चुके हैं.

क्या ये हमनशीं पेचीदा, 
गुमनाम गालियाँ
मुझे अब पहचान भी पाएंगी?

मैं आवारा हूँ, या बस दिल्लगी है… 
इक प्यास दिल में महफ़ूज़ रखना चाहता हूँ
मुझसे वादा न लो किसी मुकाम पे मिलने का 
मैं खुद से भी अंजान भटकना चाहता हूँ...



एक अँधेरी गली

इस गली में यूँ बस अँधेरा पसरा रहता है
आँख खुलती नहीं, ख्वाबों का डेरा रहता है.

तंग दिल गलियारे और तेज़ नज़र आका हैं
धूप की डोरों पे मुसलाह पहरा रहता है

बारिश आने में कई दौर गुज़र जाते हैं
पलकों पे नम सा कुछ हर वक़्त ठहरा रहता है

मुसलसल आस हो जैसे किसी को रहमत की
हाथ अक्सर दुआ करने को उठा रहता है

यूँ मेरे मुल्क में कमी नहीं रहनुमाओं की
जाने मग़मून का क्यों हाल बुरा रहता है…

 


Is gali me yun bas andhera pasraa rehta hai
aankh khulti nahi, khwabo ka dera rehta hai

tang dil galiyare aur tez nazr aka hain
dhoop ki doroN pe musalah (armed) pehra rehta hai

barish aane me kai daur guzar jate haiN
palko pe nam sa kuch har waqt thehra rehta hai

musalsal aas ho jaise kisi to rehmat ki
haath aksar dua karne ko utha rehta hai...

Yun mere mulk me kami nahi rehnumaoN ki...
Jane maghmoon ka kyo haal bura rehta hai

Wednesday, February 12, 2014

सूखे पत्ते

यहाँ फूल बिकते हैं बेज़ार हो कर,
अपने घर को सजाने सूखे पत्ते लाते हैं …

यूँ तो  तोहफे में देने को यहाँ सामान है बहुत,
चलो ख्वाबों की अदला-बदली से काम चलाते हैं.

मुफ़लिस हूँ मैं बेदिल तो नहीं खुद से क्या कहुँ
टूटे खिलौनो  को ख़यालों की गोंद से चिपकाते हैं.


तारे और चाँद मुफ्त है, रात बेनींद भी तो है,
इस खाली कमरे कि छत पर  इनको सजाते हैं.

ख़ाकज़दा मजलिसों में यूँ तेरा ज़िक्र तो नहीं,
दिखावा  है या बंदगी, सर सजदे में झुक जाते हैं... 

Saturday, February 8, 2014

गाफ़िल


बेहिस से बेहिसाब और फिर बेकरन हुए,
ऐ इश्क़ तेरी राह में गाफ़िल कदम हुए.…

जानूं से खून रिसता तो मरहम लगा देते,
सवर का मिजाज़ ऐसा रहा सर कलम हुए…

हम बस्तियों में ढूंढते थे बू तेरे घर कि,
मायूस हो के अपनी खाख में दफ़न हुए.

बेकार हैं गुलदान जिनमे फूलों की लाश है,
सूखे दरख्तों में कहीं गुलज़ार हम हुए…

लिखते क्यों बार बार अपने दर्द की ज़ुबाँ,
शौक़-ए-सफ़र में खोये यूँ कि हम सुखन हुए…



Behis se behisab aur phir bekaran hue

aie ishq teri raah me gafil kadam hue...



Janoon se khoon rista to marham laga dete...

sawar ka mijaz aisa raha sar kalam hue...

hum bastiyo me dhundhte the bu tere ghar ki,

mayoos ho k apni khaakh me dafan hue.



Bekaar hai guldaan jinme phulo ki lash hai...

Sukhe daraktho me kahi gulzaar hum hue.



Likhte kyo baar baar apne dard ki zuban...

Shauq-e-safar me khoye yun ki hum sukhan hue...



Behis- insensitive, bekaran- limitless, gafil- reckless
janooN- knees
sawar- chivalry
gulzar- to bloom
sukhan- poet

Friday, February 7, 2014

आग़ाज़


गुलिस्ताँ खाख बीरानों को अब आबाद रखते हैं
कुछ ऐसे इश्क़ के इस दौर का आग़ाज़ करते हैं.

मेरी सांसों  में घुल कर के महक उठे मौसिकी सी,
तेरे आशारों को आ कुछ अता आवाज़ करते हैं …

मुक़दर खाख हो फिर भी न पत्थर बन रहे कोई,
नाम मिट्टी के टीलों के अब इक परवाज़ करते हैं।

उनके बेबात फितरों से रश्क़ जो था उसे छोड़ो,
तुम्हारे शहर को वापस वही हसास  करते हैं।

वो पढ़ लेते अगर हमको तो फिर अफ़सोस ही क्या था.…
और हम उनकी नज़र ये खोखले अलफ़ाज़ करते है.…





Gulistan khaakh, beerano ko ab abaad karte hain
Kuch aise ishq ke is daur ka aghaaz karte hain,

Meri awaaz me ghul kar mehek uthe mausiki si...
Tere asharo ko aa kuchh ata awaz karte hain.

Muqaddar khaakh ho phir bhi na paththar ban rahe koi,
Naam mitti ke tilo ke ab ik parwaaz karte hain.

Unke bebaat fitro se rashq jo tha use chhodo,
Tumhare sheher ko wapas wohi hasaas karte hain.

Wo padh lete agar humko to phir afsos hi kya tha,
Aur hum unki nazar ye khokhle alfaaz karte hain. 

नींद के परे


सुर्ख आँखें लिये बैठा है सूरज 
तेरी भी रात क्या जागी रही थी?
डुबाने शम्स को साग़र खड़ा था,
तुम्हारी आग क्यों ठंडी पड़ी थी?

शमा ने दिल दुखाया था तुम्हारा,
या कि तारों से अनबन हो रखी थी  … 
सहर भी सहमी सी आयी है घर में 
कहीं क्या राह में भटकी रही थी?

मलाल कुछ नहीं तनहा से थे बस 
एक लम्हे कि लाश उठ रही थी 
मेरी आँखों से ख्वाब खो गए थे 
तुम्हारे घर भी क्या चोरी हुई थी?

खुदाया ख़ैर की कितनी दुआ की,
खुदाई नींद में डूबी पड़ी थी,
मेरी खातिर दुआ पढ़ देता कोइ… 
टूटे शीशों की पर किसको पड़ी थी.





Surkh ankhein liye baitha hai suraj 
teri bhi raat kya jagi rahi thi? 
Dubane shams ko sagar khada tha, 
tumhari aag kyo thandi padi thi? 

Shama ne dil jalaya tha tumhara, 
ya ki taro se anban ho rakhi thi... 
Seher bhi sehmi si aayi hai ghar me 
kahi kya raah me bhatki rahi thi? 

Malal kuchh nahi tanha se the bas, 
ek lamhe ki laash uth rahi thi; 
Meri aankho se khwab kho gaye the, 
tumhare ghar bhi kya chori hui thi? 

Khudaya khair ki kitni dua ki, 
khudai neend me dubi padi thi, 
meri khatir dua padh deta koi, 
tute sheesho ki par kisko padi thi...