Ehsas

Ehsas ke saath

Afsos bhi hota hai...

Gar ehsas zinda hai to aansu bhi aate hai,

Aur hansi bhi...

Maine to jab bhi koshish ki rone ki khud pe,

Hansi hi aayi...

Aansu barish ban ke

Man ki sukhi mitti ko khushboo se sarabor kar jate hai,

Aur banjar ho chuki dharti par andekhe phul khil aate hai.

About Me

My photo
Kagaz ke phoolo me mehek purani kitaab ki.... Zang lage guitar ke taar, aur dhun ek jaani pehchani... purani. Log kehte hai ki safar hai, par sab makaam dhundhte hai; Subah chale the, sham tak koi rah hume bhi dhundh legi...

Friday, December 27, 2013

Mirza


written on 216th birth anniversary of Mirza Ghalib... 

ना था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता 
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता?

जब हुआ ग़म से यूँ बेहिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पे धरा होता

हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना के यूँ होता तो क्या होता। ~ मिर्ज़ा ग़ालिब 

(   बेहिस  - shocked/stunned, ज़ानू  - knee)



मिर्ज़ा 

कहाँ किस्सों की उम्र होती है 
किसी कहानी को लाठी टेक चलते देखा है क्या?

वो क्या था, क्या हुआ
किसने जाना … 

कुछ आशार, कुछ मिसरे,
कुछ लमहे, और एक अरसा … 

किसी शायर की कलम से तेरी खुशबु उठती है,
किसी आशिक़ के होंठों पे रहा तेरी ज़ुबाँ का चर्चा ... 

कहीं कोई आँच लेता है टूटे दिल को पिघलाने,
तो कोई छाँव ढूँढता है सुलगती रूह बुझाने … 

तेरा होना भी क्या होता 
नहीं है फिर भी तो है ही 

हुई मुद्दत के 'ग़ालिब' ढूंढते हैं हम निशां तेरे 
और उसपर सोचना अक्सर कि 'यूँ होता तो क्या होता' ~ सबा 




na tha kuchch to KHuda tha, kuchch na hota to KHuda hota
        duboya  mujhko  hone  ne,  na  hota  maiN  to  kya  hota ?
 huaa jab GHam se yooN behis to GHam kya sar ke kaTne ka
        na  hota  gar juda  tan  se to  zaanooN  par dhaRa hota
  huee muddat ke  'GHalib' mar gaya par yaad aata hai
        wo har ek baat pe kehana, ke yooN hota  to kya hota ? ~ Mirza Ghalib

        [ behis = shocked/stunned, zaanooN = knee ]

Kaha  kisso ki umra hoti hai, 
Kisi kahani ko lathi tekte dekha hai kya?
Wo kya tha, kya hua
kisne jana...
Kuch ashar, kuch misre, 
kuch lamhe aur ek arsa,
 Kisi shayar ki kalam se teri khushbu uthti hai,
Kisi ashiq ke hotho pe raha teri zuban ka charcha...
Kahi koi aanch leta hai tute dil ko pighlane,
To koi chhanv dhundhta hai, sulagti rooh bujhane.
Tera hona bhi kya hota
nahi hai phir bhi to hai hi
hui muddat ke 'Ghalib' dhundhte hain hum nishaN tere
aur uspar sochna aksar ki 'uN hota to kya hota'. ~ Saba

Friday, June 14, 2013

सफ़र-नामा


नमक का ज़ायका
अब तक चिपका है होठों से
और बालों में
थोड़ी रेत फँसी रह गयी

लहरों से खेलने की खता की थी
कुछ सामान बह गया
और कुछ ला कर दी समंदर ने
सौगातें ...

एक बादल
जो मैं अपने साथ घर ले आई
और कुछ छींटे
जो कपड़ो की तहों में
सिमट कर सो रहे हैं

कुछ सपनो जैसी सींपियाँ
जो ढूंढी पर मिली नहीं
और कोहरे की चादर में
मदिरा सा कुछ पी कर झूमते
पेड़ो के झुरमुठ ...

मिटटी और पानी के
दायरे पिघलते
अलसाये रस्ते
बेमंज़िल चलते ...

थोड़ी आग भी सुलगाई थी
उस दरिया के किनारे
भीगा मन फिर भी
सूखने का नाम नहीं लेता ...

उस इत्मिनान के शहर में
हम कुछ काम से गए थे
पर लमहे चुराना
ऐसी कोई खता भी नहीं है

तासीर धुली हुई
सुबह और शामो की
ठंडा एक झोंका हो जैसे
मेरे घर की तपती मिटटी पर ...

Namak ka zayka
ab tak chipka hai hoto se
aur balo me
thodi ret phansi rah gayi...

Lehro se khelne ki khata ki thi
kuchh saman beh gaya
aur kuch la kar di samndar ne
saugatein...

Ek badal
jo main apne sath ghar le aayi
aur kuchh chhinte
jo kapdo ki taho me
simat kar so rahe hain

kuchh sapno jaisi sinpiyan
jo dhundhi par mili nahi
aur kohre ki chadar me
madira sa kuchh pi kar jhhumte
pedo ke jhurmuth

mitti aur pani ke
dayare pighalte
alsaye raste
bemanzil chalte...

thodi aag bhi sulgayi thi
us dariya ke kinare
bhiga man phir bhi
sukhne ka naam nahi leta.

Us itminan ke sheher me
hum kuchh kaam se gaye the
par lamhe churana
aisi koi khata bhi nahi hai

taseer dhuli hui
subah aur shamo ki
thanda ek jhoka ho jaise
mere ghar ki tapti mitti par

Thursday, June 13, 2013

पहचान


एक उधार का बदन 
और कुछ उधार के कपड़े 
पहन कर आती हूँ 
जितनी बार तुझसे मिलने आती हूँ ...


कुछ सांसे भी पिरोनी पड़ती हैं 
वो भी माँगी हुई .
अपने मैले वजूद के साथ 
तेरे रु-ब-रु नहीं हो सकती ...


इसलिए भेस धरती हूँ 
रोज़ नए 
मांगे हुए चेहरे ...


और तू भी तो किसी और की शक्ल में मिलता है मुझसे 
कभी किसी मजलिस में आ टकराए 
तो पहचान नहीं पाएंगे 

शायद अच्छा ही है 
तू ज़माने की नज़र में 
मेरे लिए अजनबी ही तो है 

और वैसे भी,
ख्वाबों की जमीन पर खिले फूल 
कभी किसी के घर में नहीं सजते 
वो खुशबु बस ज़ेहन में होती है .

इसलिए जब भी मेरे 
मजमे में आना 
इस पहचान का चोला 
उतार कर आना ...

 

Ek Udhar ka badan
aur kuchh udhar ke kapde 
pehen kar aati hu
jitni baar tumse milne aati hu...

Kuch sanse bhi pironi padti hain
wo bhi mangi hui
apne maile wajood ke sath 
tere ru-ba-ru nahi ho sakti

isliye bhes dharti hu
roz naye
mange hue chehre...

Aur tu bhi kisi aur shakl me milta hai mujhse
kabhi kisi majlis me aa takraye
to pehchan bhi nahi payenge

shayad achcha hi hai
tu zamane ki nazar me
mere liye ajnabi hi to hai

aur waise bhi, 
khwabo ki zameen pe khile phul
kabhi kisi ke ghar me nahi sajte
wo khushbu bas zehen me hoti hai

isliye jab bhi mere 
majmae me aana
is pehchan ka chola
utar kar aana... 

Thursday, May 30, 2013

बाज़ार

तुम मिले भी तो कहाँ?
खरीदारों के बाज़ार में ...
अब इस व्यापार में क्या बेचें, क्या खरीदें यहाँ?
सुना है बाज़ार में, मुफ़्त की मुस्कुराहट भी नहीं मिलती ...
तुम सौदागर हो यहाँ और हम सामान हैं ...
दोनो कुछ अदलने-बदलने आए हैं।

कई खरीदार हैं यहाँ ...
मोल भाव कर खेलने को,
तोलने सिक्कों की धत (metal) झनक-चमक
थोड़ा नफ़ा नुकसान गिनने आए हैं?
या फिर बुझे दिल सुलगाने को
एक अजीब रोज़गार ढूँढने आए हैं।

तुझे देखना दिल भर कर भी चोरी है मेरे लिए ...
पर अगर मैं कुछ पल लेना चाहुं तुम्हारे
ये सर्राफ बड़ी ऊँची बोली लगता है
है जेब में सिक्कों का वज़न, पेशानी पर पसीने की बूंदों से कम
वैसे तो अपनी सांसे दे देते तेरे मोल में
पर इन सांसो पर कोई और हक़ जताता है

गल्ले पर कभी कोई घर सजे नहीं
क्या करने आये थे यहाँ ये लाचार सामान?
ज़माने के खरोश के ग़ुलाम सज गए
सज गए नुमाइश में , कीमत भी लग ही जाएगी ...
और बेइन्तेहा है , बेवजह हो कर भी
इस बाज़ार से थोड़ी हमदर्दी की उम्मीद।

मेरी मुफ़्लसि, और तेरी फ़कीरी
दोनों बेकार बेबस बेसबब ...
देखते हैं एक दुसरे को शीशे के पर्दों के पीछे से ...
चलो थोड़ा बेशर्म होकर, अपनी मजबूरी पर थोड़ा हँस कर,
चलो आज एक मुफ़्त का सौदा करते हैं
इस बाज़ार से चुरा कर कुछ पल के लिए
किसी दरख़्त के साये में चल कर खिलते हैं ...

With special thanks to my uncle Sufi Benaam for valuable inputs and editing it without asking too many questions... 
Written by~ Saba
Edited by~ Sufi Benaam

शर्मिंदा



ग़म शर्मसार है आज
गुमनाम रहना चाहता है
तेरे इश्क़ और तेरी बेपरवाही
दोनो से अंजान रहना चाहता है

तुझे क्यों अश्कों में बहाये
पूछता है ये
तुझे बेशक्ल यादों का
सामान रखना चाहता है…

वैसे दुनिया कि नज़रों में मशरूफ ही है तू
बेवक्त मेरे खयालों में आ कर
क्यों दूसरों की निगाहों में मुझे
परेशां रखना चाहता है?

मेरे रोने और हँसने की
वजहें और भी हैं
फिर भी आँखों में ख़्वाब क्यों तुझे
मेहमान रखना चाहता है।

मैं वो इक फूल था जो तेरी राहों में सजा
और बिखर गया खुशबु की तरह
यहाँ कोई तुझे इबादतगाह में
बुतों के दरमियाँ रखना चाहता है।

बहुत शर्मिंदा हूँ दिल की इस बदतमीज़ी पर
तू तन्हाई मांगता है
और ये तेरे साथ अपनी चाह का'
कारवां रखना चाहता है।

~  सबा



Gum sharmsaar aaj
gumnaam rehna chahta hai
tere ishq aur teri beparwahi
dono se anjaan rehna chahta hai

tujhe kyo ashko me bahaye
puchhta hai ye
tujhe beshakl yado ka
samaan rakhna chahta hai

tu zamane ki nigaho me to mashruf hai
par bedhadak khayalo me aa kar
kyo dusro ki nigaho me mujhe
pareshan rakhna chahta hai?

mere rone aur hansne ki
wajahe aur bhi hai
phir bhi ankho me khwab kyo tujhe
mehmaan rakhna chahta hai

main wo ek phul tha jo teri rah me saja
aur bikhar gaya  khusbu ki tarah
yaha koi tujhe ibadatgah me
buto ke darmiyan rakhna chahta hai

Bahut sharminda hu dil ki is badtamizi par
tu tanhai mangta hai
aur ye tere sath apni chah ka
karwaan rakhna chata hai


Wednesday, May 22, 2013

इन्किलाब


एक और इन्किलाब की 
नब्ज़ पकड़ी आज ...
थोड़ा टटोल कर देखा 
कुछ हरक़त बची तो थी 
ज़रा  साँसे भी चलती थीं 
मद्धम, मगर जिंदा ...
छोटी सी उम्र थी 
कुछ दिन शायद...
और कई सांसे बेज़ा।
 
किसने पैदा किया ?
कौन पलेगा इसको?

ये इन्किलाब इतनी जल्दी 
यतीम क्यों हो जाते हैं?

वो हँसते हैं इस बात पर 
कि मैं रोती हूँ 
इसका दम निकलता देख 
समझाते हैं 
और बहुत इन्किलाब आयेंगे ऐसे ...
ये कोई नहीं बताता 
की अंजाम तक पहुंचना 
किसी का नसीब हुआ कभी?
या मकसद इसके रहनुमाओ का 
इसकी मौत ही था ...

कहने वाले यह भी कहते हैं 
की साज़िश है 
ज़हर था हल्का सा 
जो हर रोज़ थोड़ा थोड़ा 
इसकी रगों में घोला गया ...

वहाँ एक झंडा खड़ा है 
और थोड़ा थोड़ा दिखावा है 
अगरबत्तियों और फूलों का।

कोई बाग़ी कहता है  
कोई पागल 

~ सबा 

  


Inqilab

Ek aur inqilaab ki
Nabz pakdi aaj...
Thoda tatol ke dekha
Kuch harkat bachi to thi
zara sanse bhi chalti thi
Maddham, magar zinda...
Choti si umra thi
Kuch din shayad...
Aur kai sanse bezaa.

Kisne paida kiya tha?
Kaun palega isko?

Ye inqilaab itni jaldi 
Yateem kyo ho jate hain?

Wo hanste hain is baat par 
Ki main roti hu 
Iska dam nikalte dekh
Samjhate hain
Aur bahut inqilaab aayenge aise...
Ye koi nahi batata
Ki anjaam par pahunchna
Kisika naseeb hua kabhi?
Ya maqsad iske rehnumaon ka
Iski maut hi tha?

Kehne wale ye bhi kehte hain
Ki sazish hai
Zeher tha koi halka sa
Jo har roz thoda thoda
Iski rago me ghola gaya...

Waha ek jhanda khada hai
Aur thoda dikhawa hai 
agarbattiyo aur phulo ka

Koi baghi kehta hai
Koi pagal...

 ~Saba

Sunday, May 5, 2013

Dwand



इन्कलाब तो बहुत हैं
ज़माने के धधकते खून में
जाने क्यों उबाल आने से पहले
होश जैसा कुछ आ जाता है…

दुनिया दिल लगाने की जगह नहीं है
फिर भी मंज़र भटकाते हैं
और उस ख्वाब-ए -जूनून की ताबीर से पहले
रास्ते अपने आशियाँ को निकल जाते हैं।

ऐसे चलते चलते कभी
कोई ख़याल जलता हुआ तुमको भी आया होगा
बोलो क्या जला पाए अपना घर उससे
हलाकि उसने कई रातों तक जगाया होगा।

और फिर एक दिन
जब चिंगारियां तुम्हे भी जलाने लगे
चीखना मत
सोच लेना तुम्हारे ख़्वाबो का हिसाब आया है।



inqilaab to bahut hai
zamane ke dhadhakte khun me...
Jane kyo ubaal aane se pehle
hosh jaisa kuch aa jata hai...

Duniya dil lagane ki jagah nahi hai
phir bhi manzar bhatkate hai
aur us khwab-e-junoon ki tabeer se pehle...
Raste apne aashiyane ko nikal jate hain

aise chalte chalte kabhi
koi khayaal jalta hua tumkoo bhi aya hoga
bolo kya jala paye apna ghar ussse
halaki tumhe rato me jagaya hoga

aur phir ek din
jab chingariya tumhe bhi jalane lage
chikhna mat,
soch lena tumhare khwabo ka hissab aaya hai

Gulmuhar





जलते गुलमुहर की छांव मे
बिखरे ख्वाबों के सिंदूरी पत्तों मे
एक फूल ढूँढती हुं
जो शाख़ से टूट कर भी
बिखरा ना हो।।।

ये रंग इतना सुर्ख कैसे है?
शायद ढलते सूरज से चुराया होगा
या किसी दूर के राही को भटकाने के लिए
फ़रिश्तो ने ये जाल बिछाया होगा ...

बेवजह तो नहीं खिलते हैं ये गुलमुहर
किसी रंग साज़ ने खून--दिल से
पहले रंग बनाया होगा
और फिर किसी शायर की कलम ने उसपर
जलते हुए अल्फाजो का नूर सजाया होगा ...

या शायद किसी आशिक ने
बस नाम ले लिया होगा महबूब का
या किसी बच्चे के ख्वाबो के ताबीर मे
ये गुच्छा जन्नत से खुद आया होगा .

धूल की गोद से उठ कर
फिर उसी खाख में खो जाते हैं
ये रंग, जाने कैसे खिलते है
बेबाक, बेपरवाह हो कर भी शरमाते हैं

शायद इसके दफन है कई इश्क के अफ़साने
रोज़ गिर कर जिन्हें ये सुर्ख पत्तिया सजदा करती हैं

अगली बार जब मेरे घर आना उस रस्ते कसे चल कर
इक शाख गुलमुहर से ले आना कुछ फूल चुन कर…





Jalte gulmuhar ki chhaon me
bikhre khwabo ke sinduri patto me
ek phool dhundhti hu
jo shakh se tut kar bhi
bikhra na ho...

Ye rang itna surkh kaise hai?
Shayad dhalte suraj se churaya hoga
ya kisi dur ke rahi ko bhatkane ke liye
farishto ne ye jaal bichaya hoga...

Bewajah to nahi khilte hain ye gulmuhar
kisi rang saaz ne khun-e-dil se
pehle rang banaya hoga
aur phir kisi shayar ki kalam ne uspar
jalte hue alfazo ka noor sajaya hoga...

Ya shayad kisi ashiq ne
bas naam le liya hoga mehboob ka
ya kisi bachche ke khwabo ki tabeer me
ye guchcha jannat se khud aaya hoga.

Dhul ki god se uth kar
aur phir usi khaakh me kho jate hain
ye rang, jane kaise khilte hai
bebaak, beparwah ho kar bhi sharmate hain...

Shayad iske niche dafn hai kai ishq k afsane
roz gir ke jinhe ye surha pankhudiya sajda krti hain

agli baar jab mere ghar aana us raste se chal kar
ek shakh gulmuhar se le aana kuch phul chun kar.



Sunday, April 28, 2013

so jate hain chalo






लाओ  सारी आहटें समेट कर 
इस रात की चादर में ख़ामोशी से सिल दो… 
लाओ सारी हरकतें दिन भर की 
और बांध लो सारी करवटें 
आधी रात जब चराग 
अपनी उम्र जी चुके होंगे 
एक एक तह लगा कर रखते जाना 
वो शिकवे, वो मुस्कुराहटें,
वो  लम्हे, वो लम्हों के आने की आहटें ...
गिन गिन के जोड़ी दिन भर की थकावटे 
और भीड़ में तनहा रुसवा मेरी चाहतें .
सब एक साथ जोड़ कर 
उसमे थोडा पैबंद टूटे ख्वाबों का ...
एक रजाई बनाते हैं चलो 
और जागने का दिल नहीं करता 
आज तारों  छुट्टी दे कर 
सो जाते हैं चलो ...





Lao sari aahatein samet kar
iss raat ki chadar me khamoshi se 
sil do...
Lao sari harkatein din bahr ki
aur bandh lo sari karwatein
aadhi raat jab charag apni umra
ji chuke hone
ek ek teh laga kar rakhte jana
wo shikve, wo mukurahatein
wo lamhe, aur lamho ke aane ki ahaatein
gin gin ke jodi din bhar ki thakawatein
aur bhid me tanha ruswa meri chahatein...
Sab ek sath jod ke,
usme thoda aur paiban tute khwabo ka...
Ek rajai banate hain chalo
aur jagane ka dil nahi hai
aaj taro ko chhutti de 
so jate hain chalo

Saturday, April 27, 2013

neem ke phul




नीम के फूल 
याद दिलाते हैं 
कि कड़वाहट हमेशा 
बेनूर नही होती ...

ये खुशबू और सादगी 
जो सारा दिन 
तेज़ तर्रार धूप में गुम रही 
सिंदूरी जलते गुलमुहर के पीछे 
तुम्हारी ठंडी तासीर किसने जानी?

मगर रात के साये 
जब स्याह आसमान 
सुर्ख गुलमुहर 
को बेरहमी से निगल जाता है 
एक खुशबू 
रास्ता दिखाती है...

पर भटकते राही 
समझ नहीं पाते 
ये ना बेली , ना मालती ,
ना हरसिंगार ...
कौन है ...
जो इस बीराने में 
जाया हो रहा है ...




Neem ke phul 
yaad dilate hain 
ki karwahat 
hamesha benoor nahi hoti. 
Ye khushbu aur sadgi 
jo sara din 
tez tarrar dhoop me gum rahi, 
sinduri jalte gulmuhar ke piche... 
Tumhari thandi taseer 
kisne jani? 

Magar raat ke saye 
jab syah asman 
surkh gulmuhar ko 
berehmi se nigal jata hai 
ek khushbu 
rasta dikhati hai... 

par bhatakte rahi 
samajh nhi pate 
ye na beli, na malti 
na harsingar... 
kaun hai... 
jo birane me 
zaya ho raha hai.



Friday, April 26, 2013

Distraction

Distraction, oh sweet distraction, 
Disguised as an angel 
You wrap me in your pinions... 
and I lose my vision 
in the pleasure of your soft, fragrant feathers... 

Distraction, my blissful distraction... 
You are that insignificant flower 
That takes me off my track 
Just by its intangible fragrance 
A memory which cannot be revisited... 

Distraction, my ally and foe... 
you take my mind off the distasteful realities... 
transform my days into nights 
and nights to a life... 
once lived, forever cherished... 

oh melodious distraction 
you are the tune that plays 
from a distant moment in time 
and holds me in its embrace 
boundaries of time erased.... 

Distraction, the lyric of love 
you who make the drudge a poet 
and erase the difference 
between an elegy and a sonnet 
your word that are but a myth... 

but distraction, abstract distraction... 
you bring along a tiring bliss 
and leave me too satisfied 
to move that stone 
that will earn me my bread for the day 

my hostile distraction... 
You drag me away 
from all that is real 
yet I come to you 
dreary of the harsh roads 
and on the merciless desert tracks... 

My beloved distraction, 
you are the illusion 
the mirage 
that gives the half dead traveler 
that one last hope...

Wednesday, April 17, 2013

Khaliz



कई कशमकशो का बयान ज़िन्दगी
फिर भी खलीज़ सी है दास्तां ज़िन्दगी
बैठ कर खोलते रहे हम रात की गाँठे
सुबह तक हो रही तमाम ज़िन्दगी

एक चिराग़ वहां पर जलाया था किसी ने
उसकी आग़ में रोशन रही गुलफ़ाम ज़िन्दगी

बड़ी देर तक तेरे नाम की तस्बीह करते रहे
फिर भी रही तेरे लिए बेनाम ज़िन्दगी

क्या सच है क्या भरम कहा ये भेद दिखता है
तेरे आईने में अब भी है बेदाग़ ज़िन्दगी

तुझे देखना भी एक जियारत हि तो होगी
तुझे छूने से लाएगी पर इलज़ाम ज़िन्दगी

सोचा बहुत अब ना लिखे काग़ज़ पर तुझको हम
तेरे बिना काग़ज़ तो क्या, बेकाम ज़िन्दगी .

khaliz - simple
gulfam - rose like
tasbeeh - chanting on prayer beeds
Ziyarat - religious visit, darshan in hindi


Kai kashmasho ka bayan zindagi,
Phir bhi khaliz si hai ye dastaan zindagi,
Baith kar kholte rhe hum raat ki ganthe...
Subah tak ho rhi tamaam zindgi.

Ek chirag waha par jalaya tha kisi ne
Uski aag me roshan rahi gulfam zindagi...

Badi der tak tere naam ki tasbeeh kartey rahe
Phir bhi rahi tere liye benaam zindagi

Kya sach hai kya bharam kaha ye farq dikhta hai
Tere aaine me ab bhi hai bedaag zindagi...

Tujhe dekhna bhi ek ziyarat hi to hogi
Tujhe chhune se layegi par ilzaam zindagi...

Socha bahut ab na likhe kagaz par tujho hum
Tere siva kagaz to kya, bekaam zindagi.

Friday, April 5, 2013

Koshish...



सीने पर  कुछ ज़ख्म सजाए 
थोड़ी चोटें पेशानी पर  
कुछ लाइलाज से मर्ज़ 
कुछ नासूर !!

ज़रा सा शोर जो करता  है 
हमदर्दी का दावा 
और थोड़ा ठोकरों से उड़ता 
गुबार का साया .

कुछ मशक्कत की मिटटी को 
जूनून की आंच 
एक गर्द में सने पैरो की 
संगमरमर पर छाप 

माथे पे उतर के ओस से 
पसीने के नायब मोती 
और नींद उडती आँखों में 
ख्वाबों की चुभन सी होती 

ये रहगुज़र, ये नज़ारा,
और ये नज़रिया ...
ये मैं, वो तुम,
और कही आस पास दुनिया 

आवारगी की लत लगी है 
या नया सा इश्क़ लगता है… 
इत्मिनान  में दिल नहीं लगता आजकल 
बेचैनी में सुकून लगता है… 


Sine pe kuch zakhm sajaye
Thodi chote peshani par
Kuch lailaj se marz 
Kuch nasoor...


Zara sa shor jo karta hai
Humdardi ka dawa;
Aur thoda thokro se udte
Ghubar ka saya.

Kuch mashakkat ki mitti ko
Junoon ki aanch,
Ek gard me sane pairo ki
Sangemarmar pe chhap

Mathe pe utar ke os se
Pasine ke nayaab moti,
Aur neend udi aankho me
Khabo ki chubhan si hoti. 

Ye rehguzar, ye nazara,
 Aur ye nazariya...
Ye main, wo tum
Aur kahi aas paas duniya...

Kuch uljhi hai samajh, 
Ya sulajhne se dar lagta hai 
Ye gustakh rasta
Mujhe mere ghar sa lagta hai...

Awaragi ki lat lagi hai,
Ya naya sa ishq lagta hai...
Itminan me ji nahi lagta aajkal
Bechaini me sukoon milta hai.

Tuesday, April 2, 2013

Sham


आज शाम बहुत हसीं है 
कुछ फुर्सत भी है 
मद्धम से सुरूर  जैसी 
सरमस्त फ़ज़ा भीगी सी 


 धुआ सा आँख पे 
एक पर्दा लपेट के 
ज़रा ज़रा सी शबनम 
हाथों में समेट के 


सूत काता शाम से 
रंगीन और सफ़ेद 
थोड़ी उधेड़ी दिन की किनारी 
थोड़ी रात के दामन में गुलकारी. 


वो शाइस्ता चमकते मोती तराशे 
खुद को थोड़ा थोड़ा पिघला के 
और नूर के दाने डाले उसकी  पलकों में 
धूप  में ख्वाब जला के… 

आज सोचा है बारिश से 
चाँद पे तेरा नाम लिखे 
बादलों को परे करो… 
कह दो बीच में ना  पड़े … 






Sham bahut hasin hai
kuch fursat bhi hai...
Madham se suroor jaisi
Sarmast (drunk) faza bhigi si......


Dhua dhua sa aankh pe

ek Parda lapet kar
Zara zara si shabnam
Hatho me samet kar


Soot kata shaam se

rangeen aur safed
Thodi udhedi din ki kinari
Thodi raat ke daman me gulkaari (embroidery) ...


Wo shaista (precious) chamakte moti tarashe

Khud ko thoda thoda pighla ke
Aur noor ke dane daale uski palko me
Dhoop me khwab jala ke


Aaj socha hai barish se 

Chand pe tera naam likhe...
Badalo ko pare karo
keh do beech me na pade.

Sunday, March 24, 2013

Surkh


हजारो  चिरागों के हवाले किया 
इस शहर का वीराना 
फिर भी हर रात यहाँ 
सूरज की आस में बुझती है...

जमे हुए धुएं के तकिये पर 
लकीरों में सिमटता काजल 
और स्याह आसमान को रंगने को 
खून -ए - दिल भरा दवात में।

जलाये, बुझाये और सुलगते रहे 
कोयले, इस रात की अंगीठी में।

जाने उन कोयलों की लहक है 
या मेरे लिखे आशार...
ये सुबह, हर सुबह से 
कुछ ज्यादा सुर्ख उतरी है ...






Hazaro charago ke hawale kiya
Is shahar ka veerana,
Phir bhi har raat yaha
Suraj ki aas me bujhti hai...

Jame hue dhuye ke takiye par
Lakiro me simat-ta kajal
Aur syah aasman ko rangne ko
Khun-e-dil bhara dawaat me...

Jalaye, bujhaye, aur sulagte rahe
Koyle, is raat ki angeethi me.

Jaane un koylo ki lahak hai
Ya mere likhe aashar hai
Ye subah, har subah se
Kuch jyada surkh utri hai...



Monday, March 18, 2013

Three cups


How many cups of tea a morning
is enough for the day?
I had three...
one for the rising sun
a toast to my fears born afresh
one for the night that passed
and the fragments of me I left in its folds
and the third one...
Because they say
once is chance,
twice coincidence
but thrice...
A pattern.

Tuesday, March 5, 2013

Ek aur din...




कुछ और ठोकरों की कमाई आज है
कुछ बदनाम लम्हों की रुसवाई आज है…

कुछ बेनाम सी इबादत है जो नाम तेरे है
और कुछ बेकाम सी दुआओं की आज़माइश आज है.

कुछ आसार है बारिश के आने के,
कुछ धुंधला के खोती जाती फ़िज़ायें आज है

थोड़ी और साँसे जुड़ गयी जीवन के बहीखाते में,
थोड़े और गुनाहों की सुनवाई आज है…

आज फिर सुबह से शाम तक बेचैनियाँ इकठ्ठा की,
उन्हें चूल्हे में जलाने की रस्म--अदाई आज है…

कुछ और सवाबो की तलाश आज थी
कुछ शर्मसार लम्हों की भरपाई आज है।

आज फिर चाहा दस्तूर--वफ़ा का सबक सीखे
उनकी किस्मत में फिर से वही बेवफाई आज है

जाने क्यों चढ़ते सूरज से चिढ़ा सा चाँद रहता है
कशमकश कौन रफीक--तन्हाई आज है

आज ही आज मुकम्मल था मेरे जीने के लिए
तुझे लिखने में सारी सांसे फिर जलाई आज है…






Kuch aur thokro ki kamai aaj hai
kuch badnam lamho ki ruswai aaj hain...

Kuch benaam si ibadat hai jo naam tere hai
Aur kuch bekaam si duayon ki aazmaish aaj hai

Kuch aasar hai barsih ke aane ke
Kuch dhundhla ke khoti jati fizayein aaj hain...

Thodi si aur saanse jud gayi jivan ke bahi khate me
Thode aur gunaho ki sunvai aaj hai...

Aaj phir subah se sham tak bechainiya ikaththa ki
Unhe chulhe me jalane ki rasm adayi aaj hai

Kuch aur savaabo ki talash aaj thi
Kuch sharmsar lamho ki bharpai aaj hai

Aaj phir chaha dastoor-e-wafa ke sabak sikhe
Unki kismat me phir se wahi bewafai aaj hai

Jane kyo chadhte suraj se chidha sa chand rehta hai
Kashmaksh kaun rafeek-e-tanhaai aaj hai...

Aaj hi aaj mukammal that mere jine ke liye
Tujhe likhne me sari sanse phir jalayi aaj hai

Monday, March 4, 2013

Sham



इन शाखों  से लिपट के
जब रात सो जाती है
एक छोटे से बल्ब की रोशनी में
तन्हाई मिलने आती है

पत्तो से टकरा के लौटती रौशनी
और रौशनी में घुली
धीमी-धीमी सी गुनगुनाने की आवाज़

शाम के रहबर पंछियों की बातें
घर को जाती तरह तरह की आवाज़े
इत्मीनान ढुन्ढती सांसो की अनगिन कडिया
चलते पैरो से उडती धुल की लड़िया

मर चुका  है
थम चुका है
और अँधेरे की आगोश  में
खो चुका  है

 अब पत्ते गिनने बैठी हु
तारो  में दिल नहीं लगता
और गलती से शाखों पे बैठे
पंछियों के पर भी गिन लेती हु ...
सारा  हिसाब गड़बड़ .

जब सब इस शाम का साथी ढूंढते हैं
मुझे क्यों  ख़ामोशी पसंद आती है?
एकाकी मन की समस्या ये है
भ्रम टूटने से पहले शाम ढल जाती है

राह के पथ्थर को ठोकर में रखने वाली दुनिया ,
खुद कंकर का ढेर दुनिया
खुद को नादानी में पहाड़ समझती दुनिया
और दुनिया के गलियारों में चक्कर खाती दुनिया ...

सारा दिन तो हम भी इन्ही गलियों में ठोकर खाते है
और शाम के धुंधलके में
खुद को शायर समझ
खुद से मुह चुराते है





In shakho se liapt ke

jab raat so jati hai...
Ek chote se bulb ki roshni me
tanhai milne aati hai



patto se takra kar laut-ti roshni
aur roshni me ghuli dhimi si
gungunane ki awaz...



sham ke rehbar panchiyo ki batein
ghar ko jati tarah tarah ki awaze
itminan dhundhti sanso ki angin kadiya
chalte pairo se udti dhul ki ladiya...



mar chuka hai
tham chuka hai
aur andhere ki aagosh me
kho chuka hai...



Ab patte ginne baithi hu
taro me dil nhi lagta
aur galti se shakho pe baithe panchiyo ke
par bhi gin leti hu
sara hisab gadbad...



Jab sab is shaam ka sathi dhundhte hai
mujhe kyo khamoshi pasand aati hai?
Ekaki man ki samsya itni hai
bhram tutne se pehle sham dhal jati hai...



Raah ke paththar ko thokar me rakhne wali duniya
khud kankar ke tukaro ka dher duniya
khud ko nadani me pahad samajhti duniya
aur duniya ke galiyaro me chakkar khati duniya...



Sara din to hum bhi inhi galiyo me thokar khate hai
aur sham ke dhundhalke me,
khud ko shayar samajh
khud se muh churate hain...